तीसरा सूक्त

 

भागवत शक्ति-परम कल्याणकी विजेत्री

 

 [ भागवत संकल्प-शक्ति वह देवता है जिसके रूप ही है अन्य सारे देवता । जैसे-जैसे वह देव हमारे अन्दर विकसित होता है वैसे-वैसे परम सत्यकी इन सब शक्तियोंको प्रकट करता चलता है । इस प्रकार हमें सचेतन सत्ताकी सर्वोच्च अवस्था प्राप्त हो जाती है और वह हमारी जटिल और बहुविध सत्ताको प्रकाश और आनन्दमें धारण करती है । ऋषि प्रार्थना करता है कि बुराईको उसमें फिरसे प्रकट न होने दिया जाये, और हमारे अन्दर अवस्थित गुह्य आत्मा जो सब वस्तुओंका पिता होता हुआ भी हमारे अन्दर हमारे कार्यकलाप और हमारे विकासके शिशुके रूपमें प्रकट होता है, अपने-आप विशाल सत्य-चेतनाके प्रति उद्घाटित हो जाय । दिव्य-ज्वाला असत्य और अशुभकी उन सब शक्तियोंको नष्ट कर देगी जो हमें गढ़ेमें गिराना चाहती है और स्वर्गीया कोषको हमसे लूट लेना चाहती हैं ।]

 

 

त्वमग्ने वरुणो जायसे यत् त्वं मित्रो भवसि यत्समिद्ध: ।

त्वे विश्वे सहसत्युत्र देवास्त्वमिन्द्रो दाशुषे मर्त्याय ।।

 

(अग्ने) हे संकल्प ! (यत् जायसे त्वं वरुण:) जब तू जन्म लेता है, तू विशाल वरुण1 होता है, (यत् समिद्धः, त्वं मित्र: भवसि) जब तू पूरी तरह प्रदीप्त होता है तब प्रेमका अधिपति2 हो जाता है । (सहसस्पुत्र) हे शक्तिके पुत्र ! (त्वे विश्वे देवा:) सारे देव तेरे अन्दर हैं । (दाशुषे मर्त्याय त्वम् इन्द्र:) जो समर्पण करता है उस मर्त्यके लिये तू मनोगत शक्ति3 हे ।

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 1. वरुण, जो व्योमसदृश पवित्रता और असीम सत्यकी सागरतुल्य विशालता का प्रतिनिधित्व करता है ।

 2. मित्र, तत्यकी सबका आलिगन करनेवाली समस्वरता, और सब सत्ताओं का मित्र, इसलिए प्रेमका अधिपति ।

 3. इन्द्र, हमारी सत्ताका शासक, भागवत मनके देदीप्यमान लोक स्वर्का स्वामी ।

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त्वमर्यमा भवसि यत् कनीनां नाम स्वधायन् गुह्य बिभर्षि ।

अञ्जन्ति मित्रं सुधित न गोभिर्यद् दंपती समनसा कृणोषि ।।

 

(स्वधावन्) हे तू जो प्रकृतिके आत्मविधानको धारण करता है ! (यत् कनीनां1 गुह्यं नाम बिभर्षि) जब तू कुमारियोंके गुप्त नामको धारण करता है, (त्वम् अर्यमा2 भवसि) तू अभीप्सा करनेवालेकी शक्ति बन जाता है । वे तुझे (गोभि:) अपनी किरणोंके प्रकाशसे (सुधितं मित्रं न) पूर्णतया प्रतिष्ठित प्रेम3के रूपमें (अञ्जन्ति) आलोकित करते हैं, (यत् दंपती समनसा कृणोषि) जब तू प्रभु और उसकी वधू'को उनपुके प्रासादमें एकमनवाला बनाता है ।

 

 

तव श्रिये मरुतो मर्जयन्त रुद्र यत् ते जनिम चारु चित्रम् ।

पदं यद् विष्णोरुपमं निधायि तेन पासि गुह्य नाम गोनाम् ।।

 

(रुद्र) हे रुद्ररूप ! (तव श्रिये) तेरी श्रीशोभाके लिए (मरुत:) विचार-शक्तियाँ अपने दबावसे, (यत् ते चारु चित्रम् जनिम) तेरा जो समृद्ध और सुन्दर जन्म5 है उसे (मर्जयन्त) भास्वर बनाती है । (यद्) जब (विष्णो: उपमं पदं) विष्णुका वह उच्चतम चरण (निधायि) अन्दर प्रतिष्ठित हो जाता है, तब तू (तेन) उसके द्वारा (गोनाम् गुह्यं नाम) ज्योतिर्मय किरणसमूह'के गुप्त नामकी (पासि) रक्षा करता है ।

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1.बहुत संभवतः, 'कनी' शब्दका अर्थ है अपरिपक्व दीप्तियाँ ।

 हमारी अभीप्साको इन्हें आत्माकी उच्चशक्तिके साथ इनका मिलाप

 करानेके लिये तैयार करना है । अर्यमा इनके गुप्त आशयको,--नाम

 को धारण करता है । वह आशय तब प्रकट होता है जब अभीप्सा

 ज्ञानके प्रकाश तक पहुँचती है और मित्र आत्मा और प्रकृतिमें सामजंस्य

 स्थापित करता है ।

2.अर्यमन्--सत्यकी अभीप्सा करनेवाली शक्ति और क्रिया ।

3.मित्र ।

4.आत्मा और प्रकृति । प्रासाद है मानवीय शरीर ।

5.प्रकाशका परम लोक । एक और जगह अग्निके विषयमें कहा गया

  है कि वह अपनी सत्तामें प्रकाशमान लोकोंमें उच्चतम बन जाता है ।

6.विष्णके तीन पग किंवा शक्तियाँ हैं--पृथिवी, आकाश और सर्वोच्च

 लोकँ जिनके आधार हैं प्रकाश, सत्य और सूर्य ।

7.ज्ञानकी दीप्तियोंका उच्चतम दिव्यभाव सर्वोच्च प्रकाशके अतिचेतन

 लोकोंमें पाया जाता है ।

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तव श्रिया सुदृशो देव देवा: पुरू दधाना अमृतं सपन्त ।

होतारमअग्निं  मनुषो नि षेदुर्दशस्यन्त उशिज: शंसमायो: ।।

 

(देव) हे देव ! (सुदृश:) क्योंकि तू यथार्थ दृष्टिवाला है अतः (तव श्रिया) तेरी महिमासे (देवा: पुरु दधाना:) देवगण बहुविध सत्ताको धारण करते हुए (अमृतं सपन्त) अमरताका आस्वादन करते हैं । और (मनुष:) मनुष्य (होतारम् अग्नि नि षेदु:) उस शक्तिमें अपना स्थान ग्रहण करते है जो हवि प्रदान करती है । (उशिज:) अभीप्सा करते हुए वे (आयो: शंसं दशस्यन्त) सत्ताकी आत्माभिव्यक्तिका देवोमें सम्यक् विभाग करते हैं ।

 

त्वद्धोता पूर्वो अग्ने यजीयान् न काव्यै: परो अस्ति स्वधाव: ।

विशश्च यस्या अतिथिर्भवासि स यज्ञेन वनवद् देव मर्तान् ।।

 

(अग्न !) हे ज्वाला ! (न त्वत् पूर्व: होता) हविका ऐसा पुरोहित तुझसे पहले कोई भी नहीं हुआ और (न यजीयान्) नाहीं कोई यज्ञके लिए तुझसे अधिक शक्तिशाली हुआ है । (स्वधाव:) हे तू जो प्रकृतिकी आत्म-व्यवस्थाको धारण करता है ! (काव्यै: न पर: अस्ति) ज्ञानके विषयमे तुझसे उत्कृष्ट कोई नहीं । (यस्या: विश: च अतिथि: भवासि) और तू जिस प्राणीका अतिथि हो जाता है (स:) वह (देव) हे देव ! (यज्ञेन) यज्ञके द्वारा (मर्तान् वनवत्) उन सबपर प्रभुत्व प्राप्त कर लेता है जो मरणशीलताके धर्मसे युक्त हैं ।

 

 

वयमग्ने वनुयाम त्योता वसूयवो हविषा बुध्यमाना: ।

वयं समर्ये विदथेष्वह्नां वयं राया सहसस्पुत्र मर्तान् ।।

 

(अग्ने) हे ज्वाला ! (त्वा-ऊता:) तुझसे पोषित और (बुध्यमाना:) जाग्रत् हुए, (वसूयव: वयम्) सारभूत ऐश्वर्यके अभिलाषी हम (हविषा) समर्पणरूप हविके द्वारा (वनुयाम) विजय-लाभ करें । (समर्ये) बड़े संघर्षमें, (अह्नां विदथेषु) हमारे दिनों1में--हमारे प्रकाशके कालमें होने-वाली ज्ञानकी उपलब्धियोंमें, (सहस: पुत्र) हे शक्तिके पुत्र ! (राया) आनन्दैश्वर्यसे (वय मर्तान् वनुयाम) हम उन सबको पराभूत कर दें जो मरणशील हैं ।

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1. प्रकाशके वे काल जिनका साक्षात्कार आत्माको समय-समयपर होता है ।

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भागवत शक्ति--परम कल्याणकी विजेत्री

 

 ७

 

यो न आगो अभ्येनो भरात्यधीदघमधशंसे दधात ।

जही चिकित्वो अभिशस्तिमेतामग्ने यो नो मर्चयति द्वयेन ।।

 

(य:  [अघशंस:] ) अशुभ प्रकट करनेवाला जो कोई (न:) हमारे अन्दर (एन: आग: अभि भराति) पाप और पथभ्रष्टता लाना चाहता है, (अघशंसे इत्) अशुभ प्रकट करनेवाले उसीके सिरपर (अघम् अधि दधात) उसकी अपनी बुराई डाल दी जाय । (चिकित्व: अग्ने) हे सचेतन ज्ञाता ! (य: न: द्वयेन मर्चयति) जो हमें द्वैधभावसे उत्पीड़ित कर रहा है उसकी (एताम् अभिशस्तिं जहि) इस विरोधी आत्म-अभिव्यक्तिको नष्ट-भ्रष्ट कर दे ।

 

 

त्वामस्या व्युषि देव पूर्वे दूतं कृष्याना अयजन्त हव्यै: ।

संस्थे यदग्न ईयसे रयीणां देवो मर्तेर्वसुभिरिध्यमान: ।।

 

(देव) हे देव ! (अस्या: वि उषि) हमारी इस रात्रिके बाद उषा-कालमें (त्वाम्) तुझे (पूर्वे) पूर्वजोंने1 (दूतं कृण्वाना:) अपना दूत बनाया और (हव्यै:) अपनी आहुतियोंसे (अयजन्त) तुझ द्वारा यज्ञ किया, क्योंकि (देव: यत्) तू वह देव है जो (वसुभि: मर्ते:) इस देहतत्वमें रहनेवाले मर्त्योंसे (इध्यमान:) प्रदीप्त किया जाता है और (अग्ने) हे अग्निदेव ! तू (रयीणाम्) समस्त आनन्दोंके (संस्थे) मिलनस्थान2की ओर (ईयसे) गति करता है ।

 

 

अव स्पृधि पितरं योधि विद्वान् पुत्रो यस्ते सहस: सून ऊहे ।

कदा चिकित्वो अभि चक्षसे नोऽग्ने कदाँ ऋतचिद्यातयासे ।।

 

(पितरम् अब स्पृधि) तू पिताका उद्धार कर और (विद्वान्) अपने ज्ञानसे युक्त (सहस: सूनो) हे शक्तिके पुत्र ! तू (योधि) उस मनुष्यसे बुराईको दूर रख (य: ते पुत्र: ऊहे) जो तेरे पुत्रके रूपमें हमारे अन्दर धारण किया गया है । (चिकित्व:) हे सचेतन ज्ञाता ! ( न: कदा अभि चक्षसे) कब तुम हमपर वह अन्तर्दृष्टि डालोगे ? (ऋत-चित् अग्ने) हे सत्यन-सचेतन संकल्प ! (कदा यातयासे) कब हमें यात्राकी ओर प्रेरित करोगे ?

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1. प्राचीन द्रष्टाओंने जिन्होंने गुह्य नामको ढ़ूंढ़ लिया था ।

   2. सत्य और आनन्दका परमोच्च लोक ।

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 १०

 

भूरि नाम वन्दमानो दधाति पिता वसो यदि तज्जोषयासे ।

कुविद् देवस्य सहसा चकानः सुम्नमग्निर्वनते वावृधानः ।।

 

( वसो) हे सारतत्त्वमें निवास करनेवाले ! ( पिता) पिता ( भूरि नाम) उस विशाल1 नामको तभी ( वन्दमान: दधाति) उपासनापूर्वक धारण करता है (यदि) जब तू ( तत् जोषयासे) उसे इस नामको स्वीक करने और दृढ़तासे पकड़े रहनेके लिये प्रेरित करता है ( अग्नि:) हमारे अन्दर अवस्थित संकल्पशक्ति ( कुवित्) बार-बार ( सुम्नं चकान:) आनन्दकी कामना करती है और ( देवस्य सहसा) देव2के सामर्थ्यसे ( ववृधान:) बढ़ती हुई ( वनते) उसे पूरी तरह जीत लेती है ।

 

११

 

त्वमङ्ग: जरितारं यविष्ठ विश्वान्यग्ने दुरिताति पर्षि ।

स्तेना अदृश्रन् रिपवो जनासोऽज्ञातकेता वृजिना अभूवन् ।।

 

( अङग अग्ने) हे संकल्पशक्ति ! ( यविष्ठ) हे अत्यन्त तरुण तेज ! ( त्वम्) तू ( जरितारं) अपने स्तोताको ( विश्वानि दुरिता) शोकसंताप और अशुभकी सम्पूर्ण विध्न-बाधाओंसे ( अति पर्षि) पार ले जाता है । क्योंकि (जनास: अदृश्रन्) तूने उन प्राणियोंको देख लिया है ( रिपव:) जो हमें चोट पहुँचाना चाहते हैं और ( स्तेना:) अपने हृदयमें चोर हैं तथा ( अज्ञात-केता:) जिनकी अनुभूतियाँ ज्ञानसे रिक्त हैं, अतएव जो ( वृजिना: अभूवन्) कुटिलतामें गिरे हुए हैं ।

 

१२

 

इमे यामासस्त्वद्रिगभूवन् वसवे वा तदिदागो अवाचि ।

नाहायमग्निरभिशस्तये नो न रीषते वावृधान: परा दात् ।।

 

( इमे यामास:) हमारी यात्राओंकी इन सब गतियोंने ( त्वद्रिक् अमूवन्) अपने मुँह तेरी तरफ मोलिये हैं, ( तत् इत् आग:) और जो बुराई हमारे अन्दर हुऐ वह ( वसवे वा अवाचि) हमारी सत्तामें निवास करनेवालेके प्रति घोषित हो चुकी है । ( अयम् अग्नि:) यह संकल्पशक्ति ( ववृधान:) बढ़ती हुई  (न:) हमें ( अभिशस्तये रीषते) हमारी आत्माभिव्यक्तिमें बाधा डालनेवालेके प्रति, उसके हाथोंमें ( न अह परा दात्) सौंपकर कभी धोखा नहीं दे सकती, ( न [ परा दात् ] )  न ही वह हमें हमारे शत्रुओंके हाथोंमें सुपुर्द करेगी ।

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1. सत्यलोकको विशालता या विशाल सत्य भी कहा गया है ।

   2. देव, परम देवता, जिसके सब देव विभिन्न नाम और शक्तियाँ हैं ।